मैंने ज्योतिबा फुले को उतना नहीं पड़ा कि ज्यादा कुछ लिख सकूं लेकिन मैंने जितना पढ़ा है उनसे कुछ कड़ियां लिख रहा हूं: -

ज्योतिबा फुले जी हां वही ज्योतिबा फुले जिनकी पत्नी ने भारत के महिलाओं को शिक्षा दिलाने के लिए संघर्ष किया वही ज्योतिबा फुले संत महात्माओं की पढ़ने के साथ-साथ लोगों की मदद करने का शौक भी था जी हां वही ज्योतिबा फुले जिन्हें आज के लेखक नहीं लिखते हैं आंखें आंखें बताती हैं बिकी हुई मीडिया उनका नाम लेने से भी कतराती है जी हां मैं उसी ज्योतिबा फुले की बात कर रहा हूं जिन्होंने जाति व्यवस्था को एवं अपने घर की टंकी से दलितों को पानी पीने के लिए पानी खोल दिया था जी हां मैं उनकी पत्नी के ऊपर कीचड़ फेंका जाता था जी हां वही ज्योतिबा फुले आज सभी महिलाएं शिक्षित हो रही है लेकिन वह महिलाएं ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी के बारे में पढ़ना ही नहीं चाहती ना ही उसे लिखना चाहती हैं उन्हें लगता है वह जो भी कुछ कर रही हैं उनके बाप दादा की विरासत है और देश के धुरंधर मसलों पर 3×6 के स्क्रीन पर यह लिखने में बहुत गर्म होती है "my fashion is my life and my love is my life" शायद आज की महिलाएं यह समझ पाती कि उन्हें शिक्षा कितनी लड़ाई लड़ने के बाद मिली है तो वह ज्योतिबा फुले को पड़ती अंबेडकर को पड़ती एवं उन सभी लोगों को पढ़ते जिन्होंने महिला शिक्षा के लिए संघर्ष किया है
मैंने ज्योतिबा फुले को उतना नहीं पड़ा कि ज्यादा कुछ लिख सकूं लेकिन मैंने जितना पढ़ा है उनसे कुछ कड़ियां लिख रहा हूं: -
ज्योतिबा जी को संत-महत्माओं की जीवनियाँ पढ़ने में बड़ी रुचि थी। उन्हें ज्ञान हुआ कि जब भगवान के सामने सब नर-नारी समान हैं तो उनमें ऊँच-नीच का भेद क्यों होना चाहिए। स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा ने 1854 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था। लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री को इस योग्य बना दिया। उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए।
दलितों और निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा ने 'सत्यशोधक समाज' स्थापित किया। उनकी समाजसेवा देखकर 1888 ई. में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी। ज्योतिबा ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया और इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे। वे लोकमान्य के प्रशंसकों में थे।
सभी लोगों ने अपनी अपनी पुस्तकें लिखी हैं एक दौर था जब हिंदी साहित्य इतना ऊपर उठ चुका था कि एक छोटा सा लेखन भी हिंदी साहित्य में शुमार होकर अपने कर्म की आवाज को एक किताब के रूप में देश को समर्पित कर रहा था उसी वक्त ज्योतिबा फुले जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए सन 1873 में महात्मा फुले ने 'सत्यशोधक समाज' की स्थापना की थी और इसी साल उनकी पुस्तक "गुलामगिरी" का प्रकाशन भी हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया। महात्मा फुले की किताब 'गुलामगिरी' बहुत कम पृष्ठों की एक किताब है, लेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले। उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र 'गुलामगिरी' में ढूंढ़े जा सकते हैं। आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है।

ज्योतिबा अधिकतर हिंदू ग्रंथों को अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए लिखी गई किताबों से बढ़कर कुछ भी नहीं मानते. इस कारण से वे ऐसी सभी किताबों का तिरस्कार और बहिष्कार करना चाहते हैं जो एक इंसान को दूसरे इंसान से हीन व्यवहार करने को प्रेरित करे. वे कहते हैं - ‘इन ग्रंथों के बारे में किसी ने कुछ भी सोचा होता कि यह बात कहां तक सही है? क्या वे सचमुच ईश्वर द्वारा प्राप्त हैं? तो उन्हें इसकी सच्चाई तुरन्त समझ में आ जाती. लेकिन इस प्रकार के ग्रन्थों से सर्वशक्तिमान, सृष्टि का निर्माता जो परमेश्वर है, उसकी समानतावादी दृष्टि को बड़ा गौणत्व प्राप्त हो गया है. इस तरह के हमारे जो ब्राह्मण-पण्डा-पुरोहित वर्ग के भाई हैं, जिन्हें भाई कहने में भी शर्म आती है क्योंकि उन्होंने किसी समय शूद्रादि-अतिशूद्रों को पूरी तरह से तबाह कर दिया था और वे ही लोग अभी धर्म के नाम पर, धर्म की मदद से इनको चूस रहे हैं...उन ग्रंथों को देखकर-पढ़कर हमारे अंग्रेज, फ्रेन्च, जर्मन, अमेरिकी और अन्य बुद्धिमान लोग अपना यह मत दिये बिना नहीं रहेंगे कि उन ग्रन्थों को (ब्राह्मणों ने) केवल अपने मतलब के लिए लिख रखा है.’

गुलामगिरी मूलतः मराठी में लिखी गई किताब है जिसका डॉ विमलकीर्ति ने हिंदी अनुवाद किया है. भाषा के हिसाब से देखा जाए तो 144 साल पहले लिखी गई इस किताब का उन्होंने अच्छा अनुवाद किया है. यथास्थितिवाद किसी भी समाज और दौर के लिए खतरनाक है. ज्योतिबा फूले की यह किताब यथास्थितिवाद से लड़ने का रास्ता दिखाती है और हौसला भी देती है. ज्योतिबा जातिवाद का दंश झेलकर स्वयं हीनता में नहीं जाते, बल्कि दूसरों को हीनता से बाहर आने का रास्ता दिखाते हैं. समाज में जब तक जातिव्यवस्था के अंश बचे रहेंगे, तब तक गुलामगिरी जैसी क्रांतिधर्मा किताबों की प्रासंगिकता बनी रहेगी.

@कुमार विपीन मौर्य

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